दृष्टि : एक नज़्म
मैं गिलास, कभी खाली कभी भरा, देखता हूँ
आदत है, झूठ के नीचे दबा सच देखता हूँ।।
जिसकी आँखों में सब डूबने की बात करते हैं
मैं उसके आँसुओ में दबी कसक देखता हूँ।।
उसकी बेबसी को तुम कभी हार मत समझना
मैं उसकी आँखों में जीत की चमक देखता हूँ।।
जो बुरा वक्त चला गया उसे तुम भूलना नहीं
मैं खुशी के बाद आती उसकी धमक देखता हूँ।।
जो मिल गया मुझे, क्या यही मेरी मंजिल है
मैं यहाँ से जाती हुई लम्बी सड़क देखता हूँ।।
ये लोग न जाने क्यों उसकी हंसी के कायल है
मैं जब देखता हूँ, उन आँखों में हवस देखता हूँ।।
© जितेन्द्र नाथ