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Thursday, January 27, 2022

वो ही बताएगा

वो ही बताएगा: नज़्म

मुझे कब क्या है सुनना ये वो ही बताएगा
सच उसमें हो कितना, ये वो ही बताएगा

मैं कितना अकलमंद हूँ मैं ये भूल ही गया
मुझमें दिमाग है कितना, ये वो ही बताएगा

सुबह से शाम तक जो दिखे वो देखते रहो
किसमें है फायदा कितना, ये वो ही बताएगा

कुछ गलत अगर लगे तो तुम बोलना नहीं
बोले वो गद्दार है कितना, ये वो ही बताएगा

ये पागलों का हुजूम क्यों सड़कों पे आ गया
दर्द में बोलना है कितना, ये वो ही बताएगा

सुर में सुर मिला सको तभी बोलना सनम
तेरा है ये दरबार कितना, ये वो ही बताएगा

किस बात पर होगी बात ये तुझे क्या पता
बोलेगा पर कौन कितना, ये वो ही बताएगा
  © जितेन्द्र नाथ

कागज़, कलम और शिक्षक

कागज़, कलम और शिक्षक

चिराग जैसे जल रहे निरन्तर देने को तुम्हें प्रकाश
घटे अंधेरा बढ़े उजाला यह हर शिक्षक का प्रयास।।

जो नहीं साक्षर, वो बने साक्षर, है ऐसा अरमान
नही रहे निरक्षर कोई बचपन, छेड़ो यह अभियान।।

बिन कलम के बच्चा कोइ जैसे बलहीन बलवान
ज्ञान मिले तो बन सकता है, शमशीर कोई महान।।

कलम निरीह होती है, गर न हो शब्दों की ताकत
तोपों की बिसात नहीं, बदलें अखबार सियासत ।।
                © जितेन्द्र नाथ





Wednesday, January 26, 2022

सफर में हूँ

सफ़र: एक नज़्म
सदियों से ठहरा हूँ पर मैं सफर में हूँ
दरिया हूँ, रुक कर भी मैं सफर में हूँ।।

शोखियाँ तितलियों की अदाओं में हैं
मैं इश्क ठहरा, उस काले से भ्रमर में हूँ।।

ख़बरों से गायब मुझे कर दिया लेकिन
उनका क्या करोगे मैं जिनकी नजर में हूँ।।

 मुझे ढूँढते हुए हवाओं ने खाक उड़ा दी
गुमशुदा होकर भी अभी मैं खबर में हूँ ।।

ख्वाहिशें बेलगाम हैं हवस की कमी नहीं
सब्र ने कहा मैं गरीबों के गुजर-बसर में हूँ।।

इकाई दहाई सैकड़ा सब बेकार हो गए
दौलत ने कहा मैं तो आखिरी सिफर में हूँ।।

साँसों की टूटी डोर तो सब उसे ढूँढने लगे
ऑक्सीजन ने कहा मैं तो हरे शजर में हूँ।।

ममता से पूछा मैंने तेरा ठिकाना क्या हुआ
बोली, माँ के अश्क में, बाप की फिक्र में हूँ।।

ईमान इस जहान में कहीं अब भी मिलेगा क्या
बोला, अभी मैं 'जितेन' नाम के पागल बशर में हूँ।।
            *© जितेन्द्र नाथ*
जितेन्द्र नाथ 


Sunday, January 23, 2022

माँ (Mother)

     माँ - एक कविता

 (अमर शहीद विक्रम बत्रा को समर्पित)

तीन रंग की चूनर लेकर मुझको आज सुला दे माँ,

जो करना था, कर आया अब मेरी थकान मिटा दे माँ।।


जब तक सूरज चंदा चमके, दमके हिंदुस्तान मेरा,

बारम्बार करूँ तन ये अर्पण, ऐसा वरदान दिला दे माँ।।


मेरे प्राण न इस तन से निकले जब तक बैरी जिंदा हो,

सिर काट करूँ तुझ को अर्पण, इतने साँस दिला दे माँ।।


तेरी इस धानी चुनर पर मैं कोई आँच नहीं आने दूँगा,

करूँ भस्म हर दुश्मन को, तन ऐसी अगन जला दे माँ।।


जितना दूध दिया था तूने, लहू उतना बहा कर आया हूँ,

हर जन्म मिले कोख तेरी, माँ भारती का हो आँचल माँ।।

हर जन्म मिले कोख तेरी, इस धरती का आँचल हो माँ।।


तीन रंग की चूनर लेकर मुझको आज सुला दे माँ

जो करना था, कर आया अब मेरी थकान मिटा दे माँ।।

                      ©जितेन्द्रनाथ




Wednesday, January 19, 2022

तेरे शहर में (Tere Shahar Mein)

 तेरे शहर में (एक नज़्म)

हर तरफ भीड़ है बहुत तेरे शहर में

सभी कशमकश में हैं तेरे शहर में


ना उम्र थम रही है, ना ख्वाब रुक रहे

सब कुछ चल रहा है अब तेरे शहर में


न रास्ता पता है, न मंजिल की है खबर

फिर भी रहे हैं दौड़ सब तेरे शहर में


पंछी को चैन अब मिलता नहीं यहां 

बचा नहीं दरख़्त कोई तेरे शहर में


बड़े दिनों के बाद मिलने को मन हुआ

कर्फ़्यू लगा हुआ है पर तेरे शहर में


आई है मां घर तेरे बड़े दिनों के बाद

नौकर की कमी है शायद तेरे शहर में


सारे मकान यहां पर महलों को मात दे

साबुत बचा नहीं है घर कोइ तेरे शहर में


रोशनी से रातों को रोशन बहुत किया

फिर भी अंधेरा है बहुत तेरे शहर में


बगावती सुर यहां चुपचाप से हो गए

परचम भी परेशान है अब तेरे शहर में

©© जितेन्द्र नाथ

अमेज़न लिंक : आईना


तेरे शहर में


आईना: काव्य संग्रह


Monday, January 17, 2022

शिद्दत

 शिद्दत: एक नज़्म


मैं इस मोड़ से उस मोड़ तक भागता ही रहा

मेरी आंखों में नींद थी मगर जागता ही रहा


ख्वाब किसी परछाईं की तरह आते जाते रहे

मैं उनकी ताबीर के लिए बस भागता ही रहा


कुछ मंजिलें आई राह में, कुछ दूर चली गई

मैं उन तक जाती सड़कों को नापता ही रहा


जो भी मिला उससे मैं दिल खोलकर मिला

मगर दिल में उसके क्या था मैं भांपता ही रहा


मेरे अपने हरपल मुझे मेरी जगह दिखाते रहे 

मैं उन रिश्तों को खामोशी से ढापता ही रहा


लादे फिरता था जो बच्चों को अपनी पीठ पर

बुढ़ापे में वो शख्स अकेला खांसता ही रहा


उसके खेतों में उगी कपास से थान बन गए

मगर उस बदनसीब का बदन कांपता ही रहा

                   ©जितेन्द्र नाथ




Sawal : सवाल



 सवाल

तेरे सवाल का जवाब मिले तो मिले कैसे

मेरे जवाब से कुछ लोग बेनकाब होते हैं।। 

किस किस को तू यहाँ आजमा कर देखेगा

इस जहाँ में नकाब के पीछे नकाब होते हैं।।

          ©जितेन्द्र नाथ



The Railway Men: Poetry of Pain

द रेलवे मैन :  सत्य घटनाओं पर आधारित दारुण कथा ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● भारत में वेब सीरीज की जमीन गाली गलौज की दुनिया से आगे बढ़ कर अपने ल...