शिद्दत: एक नज़्म
मैं इस मोड़ से उस मोड़ तक भागता ही रहा
मेरी आंखों में नींद थी मगर जागता ही रहा
ख्वाब किसी परछाईं की तरह आते जाते रहे
मैं उनकी ताबीर के लिए बस भागता ही रहा
कुछ मंजिलें आई राह में, कुछ दूर चली गई
मैं उन तक जाती सड़कों को नापता ही रहा
जो भी मिला उससे मैं दिल खोलकर मिला
मगर दिल में उसके क्या था मैं भांपता ही रहा
मेरे अपने हरपल मुझे मेरी जगह दिखाते रहे
मैं उन रिश्तों को खामोशी से ढापता ही रहा
लादे फिरता था जो बच्चों को अपनी पीठ पर
बुढ़ापे में वो शख्स अकेला खांसता ही रहा
उसके खेतों में उगी कपास से थान बन गए
मगर उस बदनसीब का बदन कांपता ही रहा
©जितेन्द्र नाथ