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Sunday, January 23, 2022

माँ (Mother)

     माँ - एक कविता

 (अमर शहीद विक्रम बत्रा को समर्पित)

तीन रंग की चूनर लेकर मुझको आज सुला दे माँ,

जो करना था, कर आया अब मेरी थकान मिटा दे माँ।।


जब तक सूरज चंदा चमके, दमके हिंदुस्तान मेरा,

बारम्बार करूँ तन ये अर्पण, ऐसा वरदान दिला दे माँ।।


मेरे प्राण न इस तन से निकले जब तक बैरी जिंदा हो,

सिर काट करूँ तुझ को अर्पण, इतने साँस दिला दे माँ।।


तेरी इस धानी चुनर पर मैं कोई आँच नहीं आने दूँगा,

करूँ भस्म हर दुश्मन को, तन ऐसी अगन जला दे माँ।।


जितना दूध दिया था तूने, लहू उतना बहा कर आया हूँ,

हर जन्म मिले कोख तेरी, माँ भारती का हो आँचल माँ।।

हर जन्म मिले कोख तेरी, इस धरती का आँचल हो माँ।।


तीन रंग की चूनर लेकर मुझको आज सुला दे माँ

जो करना था, कर आया अब मेरी थकान मिटा दे माँ।।

                      ©जितेन्द्रनाथ




Wednesday, January 19, 2022

तेरे शहर में (Tere Shahar Mein)

 तेरे शहर में (एक नज़्म)

हर तरफ भीड़ है बहुत तेरे शहर में

सभी कशमकश में हैं तेरे शहर में


ना उम्र थम रही है, ना ख्वाब रुक रहे

सब कुछ चल रहा है अब तेरे शहर में


न रास्ता पता है, न मंजिल की है खबर

फिर भी रहे हैं दौड़ सब तेरे शहर में


पंछी को चैन अब मिलता नहीं यहां 

बचा नहीं दरख़्त कोई तेरे शहर में


बड़े दिनों के बाद मिलने को मन हुआ

कर्फ़्यू लगा हुआ है पर तेरे शहर में


आई है मां घर तेरे बड़े दिनों के बाद

नौकर की कमी है शायद तेरे शहर में


सारे मकान यहां पर महलों को मात दे

साबुत बचा नहीं है घर कोइ तेरे शहर में


रोशनी से रातों को रोशन बहुत किया

फिर भी अंधेरा है बहुत तेरे शहर में


बगावती सुर यहां चुपचाप से हो गए

परचम भी परेशान है अब तेरे शहर में

©© जितेन्द्र नाथ

अमेज़न लिंक : आईना


तेरे शहर में


आईना: काव्य संग्रह


Monday, January 17, 2022

शिद्दत

 शिद्दत: एक नज़्म


मैं इस मोड़ से उस मोड़ तक भागता ही रहा

मेरी आंखों में नींद थी मगर जागता ही रहा


ख्वाब किसी परछाईं की तरह आते जाते रहे

मैं उनकी ताबीर के लिए बस भागता ही रहा


कुछ मंजिलें आई राह में, कुछ दूर चली गई

मैं उन तक जाती सड़कों को नापता ही रहा


जो भी मिला उससे मैं दिल खोलकर मिला

मगर दिल में उसके क्या था मैं भांपता ही रहा


मेरे अपने हरपल मुझे मेरी जगह दिखाते रहे 

मैं उन रिश्तों को खामोशी से ढापता ही रहा


लादे फिरता था जो बच्चों को अपनी पीठ पर

बुढ़ापे में वो शख्स अकेला खांसता ही रहा


उसके खेतों में उगी कपास से थान बन गए

मगर उस बदनसीब का बदन कांपता ही रहा

                   ©जितेन्द्र नाथ




Sawal : सवाल



 सवाल

तेरे सवाल का जवाब मिले तो मिले कैसे

मेरे जवाब से कुछ लोग बेनकाब होते हैं।। 

किस किस को तू यहाँ आजमा कर देखेगा

इस जहाँ में नकाब के पीछे नकाब होते हैं।।

          ©जितेन्द्र नाथ



Monday, November 1, 2021

Aaina : A Review by Dev Dutt Dev

आईना: काव्य संग्रह

लेखक: जितेन्द्र नाथ

प्रकाशन: समदर्शी प्रकाशन, मेरठ

समीक्षा: श्री देव दत्त 'देव'

आईना: जितेन्द्रनाथ


"मुक्त छंद कविताएं ,मुक्तक ,गीत और ग़ज़ल की शक्ल में ढलती गीतिकाओं  से सुसज्जित 'आईना' काव्य संग्रह सचमुच में समाज का आईना है जिसमें वर्तमान समाज का प्रतिबिंब उभरकर सामने आता है जो कवि कर्म की गरिमा को रेखांकित करता है तथा संग्रह में चिंतन की अनेक धाराओं के माध्यम से रचनाकार ने अपने चिंतन के फलक की विशालता और उसकी प्रौढता को सफलता पूर्वक अभिव्यक्ति प्रदान की  हैं, मानव मन का विश्लेषण और सामाजिक विसंगतियों को व्यंजित करता काव्य संग्रह आईना केवल पाठक को बांधता ही नहीं अपितु चिंतन के लिए बाध्य भी करता है यह सब रचनाकार के कौशल का प्रतिफल है कवि ने चारों ओर घटित प्रत्येक घटनाक्रम का सूक्ष्म अवलोकन के उपरांत ही अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान की है रचनाकार निरंतर बढ़ती भौतिकता के दुष्प्रभाव से भलीभांति परिचित है भौतिकता की चमक दमक ने हमारी परंपरागत जीवन शैली को प्रभावित किया है जिसके कारण घुटन सी महसूस होती है इसलिए कवि भौतिकता के उजाले से  दूर हटकर अंतहीन दौड़ धूप से परे शांति पूर्वक जीवन व्यतीत करने का पक्षधर है-

परवाज छोड़ परिंदे शजरों पर जा बैठे 

अंधेरों से नहीं ये उजालों के सताए हुए हैं

            समाज में निरंतर बढ़ती संवेदन शून्यता के कारण संवेदनशील रचनाकार का चिंतित होना स्वाभाविक है आए दिन हर मोड़ पर ऐसी घटनाएं देखने और सुनने को खूब मिलती हैं जो सभ्य समाज के लिए कोई शुभ संकेत नहीं हैं इन्हीं के कारण समाज का स्वरूप रुग्ण हुआ है कवि ने    समाज  में निरंतर बढ़ती  रुग्णता को भी प्रभावशाली ढंग से रेखांकित किया है

 जिंदा था तो कितने फासले थे दरमियां

 मौत आई तो सब कितने करीब लगते हैं 

         भौतिकता के प्रभाव के कारण बड़ी 

स्पर्धा और स्पर्धा के अतिरेक के कारण ईर्ष्या भाव का बढ़ना और दूसरों को मिटाने की सोचना दुर्भाग्यपूर्ण चिंतन है ऐसी स्थिति में कविवर स्नेह समरसता और सौहार्द को बल देने के उद्देश्य से संगठित होने की बात करता है ताकि समतामूलक सिद्धांत को स्थापित किया जा सके 

उंगलियां काट कर सब बराबर करने निकले हैं 

बंद मुट्ठी में भी एक बात है यह बात कौन करे 

         संक्षेप में बहुत ही प्रभावशाली और उत्तम सृजन के लिए मैं बंधुवर जितेंद्रनाथ को  इस उम्मीद के साथ हार्दिक बधाई  देता हूँ कि निरंतर साहित्य साधना करते हुए साहित्य को समृद्ध करने में अविस्मरणीय योगदान देते रहेंगे।

अनंत शुभकामनाएं

          देवदत्त देव

★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★

 आईना-काव्य संग्रह समदर्शी प्रकाशन, अमेज़न और flipkart पर उपलब्ध:

https://www.amazon.in/dp/B097Z1JHQN/ref=cm_sw_r_cp_apa_glt_fabc_Y22KJF47VN1GTVNVYAPC

और

https://www.flipkart.com/aaina/p/itmded014bc2f3dd?pid=9789390481811

देव दत्त 'देव'जी

Sunday, October 31, 2021

दृष्टि

दृष्टि : एक नज़्म

मैं गिलास, कभी खाली कभी भरा, देखता हूँ

आदत है, झूठ के नीचे दबा सच देखता हूँ।।


जिसकी आँखों में सब डूबने की बात करते हैं

मैं उसके आँसुओ में दबी कसक देखता हूँ।।


उसकी बेबसी को तुम कभी हार मत समझना

मैं उसकी आँखों में जीत की चमक देखता हूँ।।


जो बुरा वक्त चला गया उसे तुम भूलना नहीं

मैं खुशी के बाद आती उसकी धमक देखता हूँ।।


जो मिल गया मुझे, क्या यही मेरी मंजिल है

मैं यहाँ से जाती हुई लम्बी सड़क देखता हूँ।।


ये लोग न जाने क्यों उसकी हंसी के कायल है

मैं जब देखता हूँ, उन आँखों में हवस देखता हूँ।।

© जितेन्द्र नाथ







The Railway Men: Poetry of Pain

द रेलवे मैन :  सत्य घटनाओं पर आधारित दारुण कथा ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● भारत में वेब सीरीज की जमीन गाली गलौज की दुनिया से आगे बढ़ कर अपने ल...